Saturday, September 23, 2023

जमीन के विवाद में आधी सदी बाद आया फैसला, वादी और परिवादी इस दुनिया में नहीं हैं


नई दिल्ली। बिहार के सीतामढ़ी के परिहार गांव में छह कट्ठा जमीन के मालिकाना हक पर सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आते आते 54 साल लग गए! सुप्रीम कोर्ट ने सीतामढ़ी जिले में पांच अगस्त 1967 में दायर टाइटल वाद पर अपना फैसला सुनाया है। इस मामले में वादी बनारस साह और परिवादी डॉ कृष्णकांत प्रसाद दोनों अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन मुकदमा अपनी रफ्तार से चलता रहा। अब जाकर फैसला आया जब दोनों पक्षकारों की तीसरी पीढ़ी आ गई है।


सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने अपीलीय कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम पाते हैं कि मुकदमे को खारिज करने का ट्रायल कोर्ट का फैसला सही है।

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दरअसल सीतामढ़ी के अधीनस्थ न्यायाधीश की अदालत में पांच अगस्त 1967 को परिहार गांव में छह कट्ठा जमीन के मालिकाना हक का विवाद दाखिल हुआ था। इसमें पहली अदालत ने 1986 में फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया। फिर निचली अपीलीय अदालत ने 7 दिसंबर 1988 को इस अपील पर वादी बनारस साह के पक्ष में दिया। प्रतिवादी डॉक्टर कृष्णकांत प्रसाद के वारिस पटना हाईकोर्ट चले गए।

पटना हाई कोर्ट में एकल न्यायाधीश ने 25 मई 1989 को फैसला सुनाते हुए अपील खारिज कर दी। उन्होंने एक संक्षिप्त आदेश में यह दर्ज किया था कि प्रथम अपीलीय अदालत द्वारा दिए गए तथ्यों के निष्कर्ष अंतिम थे और कानून का कोई बड़ा सवाल नहीं खड़ा हो गया।
मामले में आगे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया, जिसमें पाया गया कि हाईकोर्ट अपील को खारिज करने में सही नहीं था क्योंकि भूमि के टाइटल से संबंधित एक गंभीर विवाद था। 23 फरवरी, 2000 के आदेश के तहत, मामले को हाईकोर्ट में नए सिरे से विचार के लिए वापस भेज दिया गया।
20 मार्च, 2009 को हाईकोर्ट ने मामले पर नए सिरे से विचार करने के बाद दूसरी अपील खारिज कर दिया। अपील में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने विचार किया कि क्या वादी ने मुकदमे की भूमि पर अपना अधिकार स्थापित किया था, इसलिए मृतक प्रतिवादी के कानूनी उत्तराधिकारियों के खिलाफ कब्जे की डिक्री के हकदार थे। हाईकोर्ट ने कहा था कि वादी का विवादित भूमि पर अधिकार है।
रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि वादी उस संपत्ति के मालिक नहीं थे, जिस दिन उन्होंने 5 अगस्त, 1967 को मालिकाना हक और कब्जे के लिए वर्तमान मुकदमा दायर किया था। इसलिए, इसने पहली अपील अदालत के फैसलों को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा मुकदमे को खारिज करने को बरकरार रखा।

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