दो पाटों के बीच फंसा भारत
नई दिल्ली । चीन, रूस और इस्लामिक देश एकजुट होकर अमेरिकी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। पिछले कई दशकों से अमेरिका की छवि इस्लामिक राष्ट्रों को निशाना बनाने की रही है। वैश्विक संधि के बाद सारी दुनिया के देशों ने पूंजीवाद से प्रभावित होकर पूंजीवादी व्यवस्था को अपना लिया है। चीन ने इसमें भी बाजी मार ली है। एशिया प्रशांत क्षेत्र तथा महत्वपूर्ण इस्लामिक राष्ट्रों के साथ चीन के संबंध मजबूत हुए हैं वहां चीन ने भारी पूंजी निवेश कर अपना प्रभाव बढ़ाया है। वहीं अमेरिका की साख में गिरावट और मोनोपोली के कारण अमेरिका से जुड़े देश भी चीन के साथ खड़े नजर आ रहे हैं।
अफगानिस्तान में अमेरिका की भूमिका से अमेरिका की विश्वसनीयता कम हुई है और कमजोरी बेनकाब हुई है। चीन और अन्य पूंजीवादी देशों के बीच हथियारों की होड़ में भारत दो पाटों के बीच फंसकर रह गया है। अमेरिकी झुकाव के कारण भारत के इस्लामी जगत से संबंध भी प्रभावित हुए हैं। रूस जैसा भारत समर्थक देश भी चीन के साथ है और अब जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे एशिया के तीसरे विश्व युद्ध का मैदान बनने के आसार हैं। रूस, चीन, अमेरिका के वीटो पावर और संयुक्त राष्ट्र संघ की निष्प्रभावी भूमिका के साथ-साथ चीन के आर्थिक रूप से समृद्ध होने के बाद अब वैश्विक महाशक्तियों के बीच टकराव देखने को मिल रहा है जो तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की यात्रा के दरमियान दुनिया के भू राजनीतिक हालात द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की अभूतपूर्व परिस्थितियों की तरफ इशारा कर रहे हैं। प्रधानमंत्री की यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब दुनिया एक बार फिर शीत युद्ध की तरफ बढ़ रही है। जिसमें इस बार अमेरिका के मुकाबले चीन खडा है। दक्षिण सागर में चीन की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया के साथ परमाणु पनडुब्बी का समझौता किया है। पहले यह समझौता ऑस्ट्रेलिया द्वारा फ्रांस के साथ किया गया था। लेकिन फ्रांस की पीठ में छुरा घोंपते हुए ऑस्ट्रेलिया ने पहली बार अमेरिका के साथ समझौता किया। इस घटना के बाद अमेरिका के मित्र राष्ट्र फ्रांस ने न केवल खुलकर अमेरिका की आलोचना की बल्कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन से अपने राजदूत भी वापस बुला लिए। ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए नए रक्षा समझौते ऑकस के बाद फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली ने अपने ब्रितानी समकक्ष के साथ होने वाली बातचीत रद्द कर दी। फ्रांस इस बात से नाराज़ था कि ऑस्ट्रेलिया ने परमाणु शक्ति से संपन्न मिसाइलों से लेस पनडुब्बियों के निर्माण के लिए ऑकस समझौते पर दस्तखत किए जिससे फ्रांस को पहले से मिला ठेका रद्द कर दिया गया।
दुनिया में हथियारों की होड़ को लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहला कूटनीतिक टकराव है। हालांकि अमेरिका ने फ्रांस को मनाने की कोशिश की है, लेकिन जिस तरह अमेरिका के मित्र राष्ट्र फ्रांस ने आंखे तरेरी हैं उससे भविष्य की सामरिक गोलबंदी का संकेत भी मिल रहा है।
दुनिया की आर्थिक महाशक्ति कहे जाने वाले देशों की चरमराती अर्थव्यवस्था को अब हथियारों की बिक्री का ही सहारा है। इसलिए फ्रांस की नाराजगी का अर्थ स्पष्ट समझा जा सकता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि दुनिया का 26.60 लाख करोड़ रुपए का हथियारों का बाजार किसी बड़े युद्ध की तैयारी कर रहा है? अथवा डगमगाती अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए और आंतरिक असंतोष से निपटने के लिए दुनिया की महाशक्तियां किसी बड़े युद्ध की तैयारी कर रही हैं?
दुनिया में घट रही कुछ घटनाएं इस बात का स्पष्ट संकेत है।
अमेरिका भले ही कह रहा है कि उसने अफगानिस्तान से हटने का फैसला अपनी इच्छा से किया है, लेकिन ईरान का दावा है कि इराक और अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी वहां की स्थानीय सेना और राजनीतिक ताकतों के कारण संभव हो पाई है, जिन्हें अब अमेरिकापरस्त मीडिया आतंकवादी घोषित करने पर तुला हुआ है। इस प्रकार आतंकवाद को लेकर भी दुनिया की महाशक्तियां दो खेमों में बटी नजर आ रही है। ईरान इजराइल को सबसे बड़ा आतंकवादी देश मानते हुए वहां की सरकार पर गाजा पट्टी में निर्दोष महिलाओं और बच्चों की हत्या करने का आरोप लगा रहा है। वहीं इजराइल ने ईरानी शासक को आतंकवादी घोषित करते हुए ईरान पर आतंकवाद को शह देने का आरोप लगाया है। ईरान ने अमेरिका पर प्रतिबंधों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने का आरोप भी लगाया। कैपिटल हिंसा का जिक्र करते हुए ईरान ने कहा कि कैपिटल से लेकर काबुल तक अमेरिकी अधिनायकवादी प्रणाली की कोई साख नहीं बची है।
इसके बाद अमेरिका ने स्पष्ट कहा है कि वह ईरान को परमाणु क्षमता हासिल नहीं करने देगा वहीं चीन पाकिस्तान और ईरान जैसे देशों के पीछे ढाल बनकर खड़ा हुआ है। जिसमें से पाकिस्तान को लेकर भारत का स्पष्ट नजरिया है। ईरान का भारत के साथ पाइप लाइन समझौता ठंडे बस्ते में चला गया है। पाईप लाईन और ईरान के संबंधों को लेकर भारत की नीति स्पष्ट नहीं है।
यही कारण है कि चीन और अमेरिका के बीच फ्रांस से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक के देशों की भारत की रणनीति की तरफ निगाह है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही भारत गुटनिरपेक्षता का समर्थक रहा है। नेहरूजी गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जनक थे और शीत युद्ध के दौर में उन्होंने किसी भी महाशक्ति के पक्ष में लामबंद होना स्वीकार नहीं किया। वर्तमान में गुटनिरपेक्ष आंदोलन खत्म हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ भी अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। क्योंकि चीन के वीटो पावर के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान और तुर्की जैसे देश खुलकर न केवल अमेरिका की मुखालफत कर रहे हैं, बल्कि तुर्की तो एक कदम आगे बढ़कर कश्मीर का मुद्दा भी खुलेआम उठा रहा है।
इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अभूतपूर्व वाकया देखने को मिला कि जब पाकिस्तान के दोस्त तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा उठाया उसके जवाब में साइप्रस के विदेश मंत्री निकोस क्रिस्टोडौलाइड्स से मुलाकात के बाद भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने ट्वीट किया कि सभी को साइप्रस के संबंध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रासंगिक प्रस्तावों का पालन करना चाहिए। तुर्की ने साइप्रस के बड़े हिस्से पर कई दशक से अवैध कब्जा जमाया हुआ है। इस मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव भी पारित किया हुआ है, लेकिन तुर्की इसे नहीं मानता है। भारत ने पहली बार साइप्रस का मुद्दा उठाकर तुर्की को लाजवाब भले ही कर दिया हो लेकिन इससे भारत की आगामी विदेश नीति का संकेत भी मिल रहा है।यह टकराव का नया मोर्चा है।
टकराव के मोर्चे और भी हैं। चीन ने दक्षिण चीन सागर में छोटे-छोटे द्वीपों को मिलाकर बड़ी अधोसंरचना खड़ी कर ली है। प्रशांत और हिंद महासागर में चीन और ऑस्ट्रेलिया की समुद्री सीमा टकराती है। चीन इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य करना चाहता है। उसने दक्षिण एशिया में भारी निवेश किया है। पाकिस्तान, श्रीलंका, ईरान के अलावा मालदीव से लेकर इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, थाईलैंड, ब्रूनेई तक चीन का प्रभुत्व है। ‘वन बेल्ट वन नेशन’ को चीन तेजी से आगे बढ़ा रहा है। दुनिया के व्यापार जगत में चीन की धमक जम चुकी है। हथियारों में भी चीन अब अमेरिका को बराबर की टक्कर दे रहा है।
चीन भारत की घेराबंदी भी कर रहा है। दक्षिण एशिया में सार्क सम्मेलन में चीन की शह पर पाकिस्तान ने अफगानिस्तान की सत्ता हथियाने वाले तालिबान के प्रतिनिधि को बुलाने की मांग की। भारत सहित कुछ देशों ने विरोध जताया तो बैठक रद्द हो गई। यह भारत को चीन की बढ़ती ताकत का स्पष्ट संकेत है।
अफगानिस्तान का एयर स्पेस भारत के लिए बंद हो चुका है। अनुच्छेद 370 के खात्मे के समय भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पाकिस्तान ने अपने एयरस्पेस से गुजरने की इजाजत नहीं दी थी। यदि कल युद्ध की परिस्थिति बनती है तो भारत के लिए जल, थल और नभ हर जगह चीन की चुनौती और घेराबंदी से मुश्किलें बढेंगी।
इसी कारण ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत के बीच क्वाड समझौता महत्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि चीन की घेराबंदी को तोड़ने के लिए भारत का इस समझौते में शामिल होना जरूरी है। लेकिन यह असैनिक समझौता है। इसमें अमेरिका – ऑस्ट्रेलिया जैसी कोई परमाणु डील नहीं है। इसी कारण भारत की भूमिका पर अब सबकी निगाहें हैं। भारत किस तरफ रहेगा। क्या भारत अभी भी गुटनिरपेक्ष होगा। नेहरू सरकार की नीतियों की लगातार आलोचना करने वाली वर्तमान सरकार के कर्ता-धर्ता गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कैसे पुनर्जीवित करेंगे ? यह बड़ा प्रश्न चिन्ह है। ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच सैन्य समझौता है। भारत और जापान अभी सैन्य समझौते से बचे हुए हैं। इसलिए दुनिया में जो गुट चीन की तरफ है उसे भी भारत से थोड़ी बहुत उम्मीद है। वहीं अमेरिका वाला गुट भी भारत से उम्मीद लगाए बैठा है। क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों के लिए भारत इस क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में भारत की एक महत्वपूर्ण वैश्विक भूमिका की प्रबल संभावना तो है लेकिन सवाल यह है कि वर्तमान राष्ट्रीय नेतृत्व इस संभावना का किस तरह दोहन कर पाएगा। क्या चीन की घेराबंदी से निकलने के लिए भारत अमेरिका और उसके समर्थक देशों से हाथ मिलाएगा अथवा ईरान जैसे देशों से अपने संबंध पहले की तरह मजबूत बनाते हुए अपनी अलग स्थिति से दुनिया को अवगत कराएगा।
हथियारों की होड़ में है दुनिया
3 लाख करोड़ के परमाणु पनडुब्बी समझौते के रद्द होने के बाद फ्रांस का आक्रमक रुख इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दुनिया में हथियारों की होड़ चल रही है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में प्रतिवर्ष 26.60 लाख करोड़ के हथियार खरीदे जाते हैं। इसमें से 12 लाख करोड़ रुपए के हथियार तो अमेरिका की पांच कंपनियां ही बेचती हैं। इसके अलावा सात अन्य अमेरिकी कंपनियां चार लाख करोड़ के हथियार बेचती हैं। यूएई 1 वर्ष में 34 हजार करोड़ के हथियार बेचता है। चीन 4.30 लाख करोड़ के हथियार बेचता है। रूस की दो कंपनियां एक लाख करोड़ के हथियार बेचती हैं। यूरोपियन यूनियन की छह कंपनियां 5 लाख करोड़ के हथियार बेचती हैं। भारत ने फ्रांस की दसाल्ट कंपनी से राफेल विमान खरीदे जिससे कंपनी के मुनाफे में 105% की वृद्धि हो गई। यह दुनिया के हथियारों के बाजार का एक चित्र है। इसलिए दुनिया भर के परमाणु हथियारों से संपन्न देशों के बीच तीसरा विश्व युद्ध कितना भयानक हो सकता है, उसकी कल्पना ही रूह कंपा देती है। लेकिन हालात वैसे ही बन रहे हैं। यदि महायुद्ध हुआ तो दुनिया विनाश का ऐसा स्वरूप देखेगी जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। भारत के समक्ष प्रश्नचिन्ह यही है कि क्या वह महायुद्ध को रोकने का प्रयास करेगा। गुटनिरपेक्षता को बढ़ावा देगा। विदेश नीति में अपनी कमजोर स्थिति को मजबूत करेगा। अथवा अमेरिका जैसे देशों के साथ लामबंदी करके चीन को घेरने की कोशिश करेगा।