नई दिल्ली । चीफ जस्टिस एन वी रमण ने शनिवार को इस बात पर चिंता जताई कि देश में प्रति दस लाख आबादी में मात्र 20 जज ही हैं, जो बहुत ही कम है। मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के 11वें संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रमण ने कहा कि देश में जज और उनके फैसले विरोधात्मक नहीं हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया ही विरोधात्मक है। उन्होंने कहा कि जज सिर्फ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। अदालतों का काम न्याय देना है और इसे इसी तरह से देखा जाना चाहिए।
उन्होंने जजों की नियुक्ति की मांग करते हुए सरकार से कहा अधिक पदों के सृजन और नियुक्तियां करने के मामले में अधिक दरियादिली बरतें ताकि उन्नत लोकतंत्र के अनुरूप देश में आबादी और जजों को अनुपात संतुलित हो सके। जजों के जितने पद अभी आवंटित हैं, उसके अनुसार, प्रति दस लाख आबादी में मात्र 20 जज हैं। चीफ जस्टिस ने कहा कि हाई कोर्ट के जजों के लिए 1,104 पद आवंटित हैं, जिनमें से 388 पदों के लिए रिक्तियां हैं और 180 सिफारिशों में से 126 नियुक्तियां देश के विभिन्न हाईकोर्ट में की गई हैं।
उन्होंने बताया कि केंद्र से 50 प्रस्तावों पर अभी अनुमोदन मिलना बाकी है और हाईकोर्ट ने करीब 100 नाम केंद्र सरकार को भेजे हैं, जो अभी सुप्रीम कोर्ट को प्राप्त नहीं हुए हैं। उन्होंने कहा जब हम आखिरी बार 2016 में मिले थे, तो उस वक्त देश में जजों के कुल आवंटित पद 20,811 थे और अब यह संख्या 24,112 है। छह साल में पदों की संख्या में 16 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। दूसरी तरफ जिला अदालतों में केसों के लंबित होने के मामले दो करोड़ 65 लाख से बढ़कर चार करोड़ 11 लाख हो गए हैं। लंबित मामलों में 54।64 प्रतिशत की तेजी आई है। इससे पता चलता है कि जजों के लिए आवंटित पदों की संख्या कितनी अपर्याप्त है।
उन्होंने कहा नीति निर्माण अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है लेकिन जब नागरिक ही आवाज उठाएं तो अदालतें मना नहीं कर सकती हैं। चीफ जस्टिस रमण ने कहा कि अदालतों के आदेश को सरकार वर्षो तक लागू नहीं करती है। इससे अदालत की अवमाननना की याचिकाओं की संख्या बढ़ती है, जो केसों के बोझ की अलग ही श्रेणी है। उन्होंने कहा अदालत के आदेश के बावजूद जानबूझकर सरकार का कार्रवाई न करना लोकतंत्र के हित में नहीं है। उन्होंने जजों से कहा कि वे फैसले सुनाते वक्त लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखें। अगर शासन कानून सम्मत है, तो न्यायपालिका को कभी भी उसके रास्ते में नहीं आना चाहिए। न्यायपालिका जनकल्याण संबंधित चिंताओं को समझती है। चीफ जस्टिस ने कहा कि कार्यपालिका कई बार अपनी मर्जी से निर्णय का बोझ न्यायपालिका पर डाल देती है।
नीतिनिर्माण न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, लेकिन जब नागरिक अपनी शिकायत लेकर अदालत में पहुंचे तो अदालतें उसे मना नहीं कर सकती हैं। उन्होंने कहा देश की 140 करोड़ आबादी निश्चित ही न्याय प्रणाली के लिए परीक्षा के समान है, क्योंकि दुनिया के किसी भी देश को इतनी बड़ी संख्या में और इतने तरह के विवादों को नहीं सुनना पड़ता है। उन्होंने कहा अगर सरकारी मशीनरी सही तरीके से काम करे, पुलिस कानून के दायरे में काम करे और सरकार मुकदमेबाजी से बचे तो अदालतों का बोझ बहुत कम हो जाएगा।
चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर एक तहसीलदार किसान की भूमि सर्वेक्षण या राशन कार्ड से संबंधित शिकायत पर कार्रवाई करे तो वह किसान अदालत का दरवाजा खटखटाने की नहीं सोचेगा। अगर कोई नगर निगम या ग्राम पंचायत अपने काम को सही से करे तो नागरिकों को अदालत का रुख नहीं करना पड़ेगा। चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर राजस्व अधिकारी कानूनी प्रक्रिया के तहत भूमि अधिग्रहण करें तो अदालतों में भूमि विवाद के मामलों का बोझ नहीं बढ़ेगा।
लंबित मामलों में इनकी हिस्सेदारी 66 प्रतिशत है। उन्होंने कहा कि अगर पुलिस जांच सही से हो और अगर अवैध गिरफ्तारी न की जाये और हिरासत में अत्याचार न किए जाएं तो किसी भी पीड़ित को अदालत नहीं आना पड़ेगा। चीफ जस्टिस ने कहा कि उन्हें यह बात नहीं समझ में आती कि आखिर सरकारी विभागों के बीच या सरकारी विभागों के अंदर तथा सरकारी उपक्रमों तथा सरकार के बीच का विवाद अदालत क्यों पहुंचता है।