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लोस चुनाव : बांसुरी नगरी पीलीभीत से किसे सुनाई देगी जीत की धुन

लखनऊ,। उत्तर प्रदेश का पीलीभीत जिला अपने सियासी वजूद की वजह से न सिर्फ प्रदेश में बल्कि देशभर में अपनी पहचान रखता है। उत्तराखंड के पहाड़ों से सटा यह जिला भारतीय जनता पार्टी के कब्जे में लंबे समय से है। पीलीभीत बरेली मंडल में आता है।

इतिहास के अनुसार राजा मोरोध्वज का किला पीलीभीत के नजदीक दियूरिया जंगल में आज भी है। गोमती नदी के तट पर एक पौराणिक मंदिर इकहत्तरनाथ स्थित है। पीलीभीत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहां के उद्योगों में चीनी, कागज, चावल और आटा मिलों की प्रमुखता है। यहां कुटीर उद्योगों में बांस और जरदोजी का काम प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले की पहचान बांसुरी नगरी के नाम से होती है।

यह क्षेत्र ज्ञान और साहित्य की अनेक विभूतियों का कर्मस्थल रहा है। इतिहासकार नारायणानंद स्वामी अख्तर, कवि राधेश्याम पाठक, फिल्म गीतकार अंजुम पीलीभीत से ही हैं। उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली के अलावा पीलीभीत वो लोकसभा सीट है जिसे देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार गांधी परिवार का गढ़ माना जाता है।

पीलीभीत सीट का संसदीय इतिहास

स्वतंत्र भारत में पीलीभीत और नैनीताल लोकसभा सीट एक होती थी। पीलीभीत से कांग्रेस के मुकुंद लाल अग्रवाल ने पहली जीत 1952 में दर्ज की थी। पीलीभीत लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र सियासत में कुर्मी बहुल सीट के नाम पर जाना जाता था। इस सीट पर सात बार कुर्मी बिरादरी का ही सांसद चुना गया। लेकिन जनपद की राजनीति में गांधी परिवार की छोटी बहू मेनका गांधी की वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में एंट्री हुई। जनता दल के टिकट पर मैदान में उतरीं मेनका कुर्मी बिरादरी के दिग्गज कांग्रेस के भानु प्रताप सिंह को करारी शिकस्त दे दीं। इसके बाद पीलीभीत के सियासी माहौल बदलने लगे। भाजपा के परशुराम गंगवार ने 1991 के पहली बार यहां कमल खिलाया था। उसके बाद से कुर्मी बिरादरी के दिग्गज चुनाव मैदान में तो उतरे लेकिन संसद में दाखिल नहीं हो सके।

1996 मेनका गांधी जनता दल प्रत्याशी के तौर पर चुनी गई तो 1998 और 1999 के चुनाव में उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत का झंडा गाड़ा। 2004 के चुनाव में मेनका गांधी भाजपा की टिकट पर मैदान से उतरी। इसके बाद 2009, 2014 और 2019 के चुनाव में लगातार इस सीट पर भाजपा का कब्जा है। इन चुनावों में कभी मेनका गांधी तो कभी वरुण गांधी सांसद रहे हैं। मेनका गांधी ने यहां से 6 बार चुनाव जीता है। वहीं वरुण गांधी दो बार यहां से सांसद रहे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का यहां कभी खाता खुल नहीं पाया। मां-बेटा की राजनीतिक विरासत वाला पीलीभीत मेनका और वरुण के लिए एक घर जैसा ही है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि लगभग तीन दशकों से मां-बेटे का पीलीभीत लोकसभा सीट पर जादू कायम है।

2019 लोकसभा चुनाव का नतीजा

2019 में पीलीभीत से भाजपा ने वरुण गांधी को टिकट दिया। वरुण गांधी ने इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया। वरुण को 704549 (59.34 फीसदी) वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर रहे सपा के हेमराज वर्मा को 448922 (37.81 फीसदी) वोट हासिल हुए थे।

2014 के चुनाव पर नजर डालें तो इस सीट से मेनका गांधी सांसद चुनी गई थीं। मेनका गांधी को 546934 (53.06 फीसदी) वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर रहे सपा के बुद्धसेन वर्मा को 239882 (22.83 फीसदी) वोटों पर ही संतोष करना पड़ा था। बसपा के अनीस अहमद इस दौरान तीसरे नंबर पर रहे थे। बसपा प्रत्याशी को 196294 (18.68 फीसदी) वोट मिले। इस दौरान कांग्रेस यहां चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई थी। कांग्रेस ने संजय कपूर को चुनावी मैदान में उतारा था, जिन्हें महज 29169 (2.78 फीसदी) वोट हासिल हुए थे।

2024 में गठबंधन के साथी कौन हैं

पिछले लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन था। इस बार भाजपा-रालोद गठबंधन में हैं। इंंडिया गठबंधन में सपा-कांग्रेस शामिल हैं। इंडिया गठबंधन में ये सीट सपा के खाते में है। बसपा अकेले मैदान में है। भाजपा-रालोद गठबंधन में यह सीट भाजपा के हिस्से में है।

चुनावी रण के योद्धा

मेनका गांधी और वरुण गांधी के नाम से पहचान रखने वाली पीलीभीत सीट पर इस बार भाजपा ने चेहरा बदल दिया है। यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री जितिन प्रसाद इस बार भाजपा के प्रत्याशी हैं। वहीं, बसपा ने पूर्व मंत्री अनीस अहमद खां उर्फ फूलबाबू को मैदान में उतारा है। इंडिया गठबंधन के अंतर्गत सपा ने पूर्व मंत्री भगवत सरन गंगवार को प्रत्याशी बनाया है।

पीलीभीत का जातीय समीकरण

पीलीभीत के जातीय समीकरण की बात करें तो यहां कुल 18 लाख मतदाता है। इनमें सवा दो लाख कुर्मी, 4.30 लाख मुस्लिम, 1.7 लाख ब्राह्मण, 1 लाख सिख और चार लाख दलित वोटर आते हैं। इनमें बांग्लादेश से आए शरणार्थियों भी शामिल हैं। मुस्लिम और दलित वोटर ही प्रत्याशियों का खेल बनाते और बिगाड़ते हैं। इन सभी समुदायों पर मेनका गांधी और वरुण गांधी के जरिए भाजपा ने अच्छी पकड़ बनाई है।

पीलीभीत लोकसभा की विधानसभा सीटों का हाल-चाल

रामपुर लोकसभा की बात करें तो उसमे कुल 5 विधानसभा आती हैं। चार विधानसभाओं में पीलीभीत, पूरनपुर, बीसलपुर, बरखेड़ा और व बरेली जिले की बहेड़ी सीट शामिल है। चार सीटों पर भाजपा और एक सीट पर समाजवादी पार्टी का कब्जा है। पीलीभीत से संजय सिंह गंगवार (भाजपा), पूरनपुर से बाबू राम (भाजपा), बीसलपुर से विवेक कुमार वर्मा (भाजपा), बरखेड़ा से जयद्रथ उर्फ प्रवक्तानंद (भाजपा) और बहेड़ी से अताउर्रहमान (सपा) विधायक हैं।

पीलीभीत का चुनावी गणित

समाजवादी पार्टी ने कुर्मी बिरादरी के दिग्गज बरेली के भगवत सरन गंगवार को मैदान में उतार कर मुस्लिम-कुर्मी मतों के सहारे कामयाबी का ताना-बाना बुना है। दो बार पूर्व मंत्री और पांच बार विधायक रहे चुके सपा के भगवत सरन गंगवार के पास लंबा राजनीतिक अनुभव है। बसपा ने अनीस अहमद खां उर्फ फूलबाबू को अपना प्रत्याशी बनाने से पहले वोट बैंक के अलावा जातीय समीकरण और कैडर वोट बैंक को ध्यान में रखकर रणनीति बनाई है। फूलबाबू बीसलपुर विधानसभा क्षेत्र से तीन बार विधायक भी रहे चुके हैं। ऐसे में उनकी सर्व समाज में गहरी पैठ बताई जाती है। वे 2009 और 2014 में बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं, दोनों बार वे तीसरे स्थान पर रहे थे। हालांकि पीलीभीत से अब तक बसपा और सपा ने एक बार भी संसदीय चुनाव नहीं जीता है।

लंबे समय से भाजपा के पास रही पीलीभीत सीट पर दबदबा कायम रखना संगठन और प्रत्याशी के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। वरुण गांधी की जगह जितिन प्रसाद पर दांव लगाने के पीछे भाजपा की सोची-समझी रणनीति है। जतिन प्रसाद राजनीतिक परिवार से हैं। और स्वयं उनके पास भी राजनीतिक अनुभव की कमी नहीं है। राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार यूपी में पहले चरण की शायद ही किसी अन्य सीट पर नतीजों की तस्वीर इतनी साफ हो,जितनी पीलीभीत की है। अलबत्ता बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी की जद्दोजहद मुकाबले को रोमांचक जरूर बना रही है।

पीलीभीत से कौन कब बना सांसद

1952 मुकन्द लाल अग्रवाल (कांग्रेस)

1957 मोहन स्वरूप (कांग्रेस)

1962 मोहन स्वरूप (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी)

1967 मोहन स्वरूप (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी)

1971 मोहन स्वरूप (कांग्रेस)

1977 मो0 शमशुल हसन खां (भारतीय लोकदल)

1980 भानु प्रताप सिंह (कांग्रेस)

1984 भानु प्रताप सिंह (कांग्रेस)

1989 मेनका गांधी (जनता दल)

1991 परशुराम गंगवार (भाजपा)

1996 मेनका गांधी (जनता दल)

1998 मेनका गांधी (निर्दलीय)

1999 मेनका गांधी (निर्दलीय)

2004 मेनका गांधी (भाजपा)

2009 फिरोज वरुण गांधी (भाजपा)

2014 मेनका संजय गांधी (भाजपा)

2019 फिरोज वरुण गांधी (भाजपा)

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